गंगा का भौतिक महत्व और आध्यात्मिक माहात्म्य सर्वविदित है। इस देश की भक्ति परंपरा बढ़ाने में गंगा की अनुकम्पा सर्वविदित है। भूमि को उपजाऊ बनाने, धन-धान्य की संपदा बढ़ाने, वृक्ष-वनस्पति की शोभा विकसित करने में गंगा और उसकी सहेलियों का जो योगदान रहा है, वह असाधारण है। यदि हिमालय रूपी स्वर्ग से मैदानी इलाके के भूगोल में गंगा न आती, तो यह शस्यश्यामला भारत माता वैसी श्रीसंपन्न न होती जैसी अब है। यह गंगा का भौतिक महत्व है।
आध्यात्मिक माहात्म्य वह है जो चेतना को प्रभावित करता है। पवित्र गंगाजल की स्वास्थ्य संवर्धन की विशेषता सर्वविदित है। उसका जल धरती का अमृत माना जाता है। शहरों की गंदगी मिल जाने से तो स्थिति में परिवर्तन हुए हैं, पर शुद्ध गंगा जल की आरोग्य संवर्धन और रोग निवारिणी शक्ति का परिचय अभी भी पाया जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य का लाभ गंगा के निकटवर्ती वन प्रदेशों में अभी भी विद्यमान है। मानसिक क्षमता विकसाने और मनोरोगों से छुटकारा पाने का उपयुक्त वातावरण आज भी वहां मौजूद है। आत्मिक दृष्टि से गंगा को तरणतारिणी कहा जाता है।
उसकी समीपता और हिमालय की गरिमा से संयुक्त उत्तराखंड योगाभ्यास और तपश्चर्या के लिए सूक्ष्म विशेषताओं से भरा पूरा माना जाता रहा है। प्राचीन काल में यही क्षेत्र देवभूमि, ऋषि भूमि माना जाता था और यहां रहकर आत्मिक शक्ति के संपादक अभिवर्धन के महान प्रयोग होते थे। अभी भी उस परंपरा से जुड़े हुए तथ्य उस क्षेत्र में अन्यत्र की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में विद्यमान है। स्नान की, गंगा जल की, गंगा तट सेवन की महिमा धर्मशास्त्रों और ऐतिहासिक कथा-पुराणों में भरी पड़ी है। कितने ही अपनी आत्मसाधनाओं के लिए गंगा की गोद में निवास करने की योजना बनाते और अपेक्षाकृत अधिक सफलता प्राप्त करते हैं। भगवान गंगा का जन्म दिन ज्येष्ठ सुदी दशमी गंगा दशहरा है। लोग इस दिन भगवान गंगा को अपनी श्रद्धांजलि चढ़ाने व दर्शन-मज्जन का लाभ पाने के लिए दूर-दूर से पहुंचते हैं।
गंगा और गायत्री जयंती का पुण्य पर्व एक ही दिन
जलदान के विभिन्न कर्मकाण्ड और दान पुण्य जगह-जगह होते हैं । ठण्डे-मीठे पानी की प्याऊ लगाने, जल कलश दान करने की प्रवृत्तियां अभी भी धार्मिक क्षेत्रों में प्रचलित हैं। उनमें गंगा की प्रतीक पूजा का ही तत्व समाया रहता है। गंगा और गायत्री जयंती का पुण्य पर्व एक ही दिन है। दोनों के अवतरण इतिहास भी मिलते-जुलते हैं । भगीरथ ने तप करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारने में सफलता पाई थी। विश्वामित्र ने गायत्री को तप साधना करके उसे देव परिवार तक सीमित न रहकर सर्वसाधारण के उपयोग में आने की स्थिति तक पहुंचाया था। गायत्री महाशक्ति अनादि है। आकाशवाणी के रूप में वे सर्वप्रथम ब्रह्मांड के अंतः आकाश में गूंजी थी और उन्हें तप के द्वारा सृष्टि का सृजन एवं नियोजन करने की शक्ति प्राप्त करने का निर्देश दिया था। यह गायत्री का अनादि अवतरण है। इसके उपरान्त वेद-गायत्री के रूप में चौबीस अक्षरों का विस्तार हुआ। योगाभ्यास और तप साधना में गायत्री का अवलम्बन ही प्रधान रहा है।
इसी के सहारे ऋषि-तपस्वी और आत्मिक प्रगति के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ते रहे हैं। इसी को गुरु मंत्र घोषित किया गया है। प्रातः और सायंकाल का संध्या वंदन भी गायत्री उपासना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। शिखा के रूप में मस्तिष्क पर और यज्ञोपवीत के रूप में हृदय पर इसी के प्रतीक की प्रतिष्ठापना की जाती है। जिस प्रकार गंगाजी के अवतरण संयोजक भगीरथ थे, उसी प्रकार ज्ञान-गंगा गायत्री के अवतरणकर्ता विश्वामित्र थे। कहा गया है कि
विश्वामित्र और भगीरथ के रूप में एक ही आत्मा ने दो समय पर दो कार्य सम्पन्न किये हैं। इस एकता का आधार यह माना जाता है कि दोनों की जयंती एक ही दिन है। गंगा और गायत्री जयंती के पर्व एक ही तिथि को मनाये जाते हैं। इस पुण्य अवतरणों से भारतीय संस्कृति धन्य हुई है। भारत माता की गरिमा अमर हुई है। गायत्री का तत्त्वज्ञान ब्रह्मविद्या के रूप में विकसित हुआ है। यही है वह देव सम्पदा, जिसके कारण अतीत के स्वर्णिम इतिहास में इस देश को देवभूमि कहलाने और समस्त विश्व को अजस अनुदान वितरित करने का अवसर हमारे महान पूवजों को मिलता रहा है। आज के दिन हम उन पूर्वजों को शत-शत नमन करते हैं, जिन्होंने हमें गंगा-गायत्री जैसी महान पतितपावनी धारा को विशिष्ट उपहार के रूप में दिया है, जिसमें अवगाहन कर परम शांति प्राप्त करने का अवसर हमें मिला है।
बाह्य और आंतरिक पवित्रता का पर्व
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी- बाह्या भयंकर: शुचिः बाहरी और आंतरिक पवित्रता का पर्व है। गंगा दशहरा और गायत्री जयंती का सम्मिलन तीर्थ है- यह पावन तिथि। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की इस दशमी तिथि को राजर्षि भगीरथ के कठोर तप व भावभरी प्रार्थनाओं के सुफल के रूप में भगवती गंगा, धरती को पावन करने के लिए अवतरित हुई। इसी शुभ तिथि को ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के दुष्कर तप एंव करूण प्रार्थनाओं के प्रतिफल के रूप में आदिशक्ति गायत्री भी अवतीर्ण हुई। बाह्य जीवन की पवित्रता, सफलता व समृद्धि की धारा हैं- गंगा। इसी तरह आंतरिक चेतना की पावन, वर्षा व विभूतियों की धारा हैं- गायत्री। दोनों दो होकर भी एक हैं। दोनों की इस एकरूपता को निहारने के लिए, इनके एकात्म भाव को देखने के लिए योग दृष्टि- अंतर्दृष्टि चाहिए। गंगा एक नदी नहीं हैं, वे सभी नदियों का सम्मिलित रूप हैं। नदियों का श्रद्धापूर्ण प्रतीक है।
गंगा-पूजन का अर्थ है- सभी नदियों का सम्मान करना, उन्हें प्रदूषण मुक्त करने की निरंतर कोशिश करना व उनके प्रवाह को असंतुलित नहीं होने देना। गंगा के प्रवाह में एकता, शुचिता व समता का संदेश निहित है। गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा सभी को एकत्व में पिरोती हैं। सभी को शुचि अर्थात पावन करती हैं। उनके लिए सभी समान हैं- न किसी से भेदभाव और न अलगाव। इनमें न जाति-धर्म का भेद है, न संप्रदाय-संस्कृति का। बस, पवित्रता, पावन का प्रवाह हैं- गंगा। जी जितने अंशों में एकता, शुचिता व समता को अपना सका, समझो वह उतने अंशों में गंगा का पूजन कर सका। फूल बहाकर, मल-मूत्र बहाकर, प्रदूषित द्रव्यों को गंगा में उड़ेलकर, गंगा का पूजन नहीं हो सकता। जिस दिन भारतवासियों ने सही अर्थों में गंगा का पूजन प्रारंभ कर दिया, समझो उसी दिन भारत का भाग्योदय हो गया। अतः गंगा व गायत्री दो नहीं हैं।
गायत्री मंत्र के अर्थ व भाव को समझना होगा
दरअसल गंगा का आंतरिक रूप गायत्री हैं और गायत्री का बाहरी रूप गंगा हैं। जिस तरह गंगा का संदेश एकता, शुचिता व समता है, उसी तरह गायत्री-साधना का अर्थ है- एक विशिष्ट जीवनशैली को अपना लेना। केवल चौबीस अक्षरों वाले मंत्र को रटने से काम चलने वाला नहीं है। सुबह जागकर गायत्री मंत्र रटा और दिन भर ढेरों खुराफातें की। भला ऐसे कहीं गायत्री-साधना संभव हो सकेगी। गायत्री को समझने के लिए गायत्री मंत्र के अर्थ व भाव को समझना होगा। गायत्री मंत्र के प्रारंभ में ऊ है। इसका अर्थ है- जीवन ईश्वर मुखी है। जीवन में सदा ईश्वर का स्मरण व चिंतन होता है।
हा भू:भू वः स्वप्न हमारे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर व कारणशरीर के प्रतीक हैं। हमें परमात्मा की संव्याप्ति की अनुभूति करनी चाहिए। इसके बाद है गायत्री का पहला चरण-हा तत्सवितुर्वरेण्यं ा अर्थात उन सविता देव का वरण। इसका अर्थ है जीवन में सकारात्मक व श्रेष्ठता का वरण। व्यावहारिक रूप में इसे सकारात्मकसोच कह सके हैं। इसके बाद गायत्री का दूसरा चरण है-अभंग देवस्य धीमहि न- अर्थात परमेश्वर के तेज को धारण करना। श्रेष्ठताएं ही परमात्मा का तेज हैं। इनका व्यावहारिक लौकिक रूप है- हमारे जीवन के सुविधा-संसाधन। जो इनका अपने जीवन में ठीक-ठीक सदुपयोग करना सीख जाते हैं, समझो उन्हें भगवान के तेज को धारण करना आ गया।
गायत्री मंत्र का तीसरा चरण है- ह्यधियों यो नः प्रचोदयात्- बुद्धि का सन्मार्ग गमन। इसका व्यावहारिक रूप है- अपने शारीरिक व मानसिक श्रम को सही दिशा देना हह्न परमपूज्य गुरुदेव ने त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों के ये व्यावहारिक अर्थ समझाए हैं- (1) सकारात्मक सोच, (2) सुविधा-साधनों का सही-सही सदुपयों एवं (3) शारीरिक व मानसिक श्रम की सही दशा । यह एक सर्वथा नया व व्यावहारिक चिंतन था, जिसे गायत्री साधक को जीवन में अनिवार्य रूप से आत्मसात करना चाहिए।
गंगा दशहरा स्तोत्र की ये पंक्तियां
गंगे मे ममान तो भूयः गंगे मे तिष्ठ पृष्ठतः। गंगे मे पार्श्वयोरेधि गंगेत्वय्यस्तु में स्थितिः।।
अर्थात हे माता गंगे! आप मेरे आगे हों तथा गंगे! आप मेरे पीछे हो । गंगे! आप मेरे अभय पार्श्व में हों तथा गंगा! आप में ही मेरी स्थिति हो।
इसी रामायण में निहित था गायत्री स्मरण नमस्ते देवि गायत्री सावित्रि त्रिपुरा अक्षरे। अजरे-अमरे माता की त्राहि मां भवसागरात् अर्थात हे देवि गायत्री! सावित्री स्वरूपा, त्रिपुरा अक्षरा आप अजर-अमर हो, आप को नमन है। हे माता! मेरा त्राण करो, मुझे भवसागर से पार लगाओ।